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ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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पल भर की उस चंचलता ने

खो दिया हृदय का स्वाधिकार,

श्रद्धा की अब वह मधुर निशा

फैलाती निष्फल अंधकार


मनु को अब मृगया छोड नहीं

रह गया और था अधिक काम

लग गया रक्त था उस मुख में-

हिंसा-सुख लाली से ललाम।


हिंसा ही नहीं-और भी कुछ

वह खोज रहा था मन अधीर,

अपने प्रभुत्व की सुख सीमा

जो बढती हो अवसाद चीर।


जो कुछ मनु के करतलगत था

उसमें न रहा कुछ भी नवीन,

श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता

अब था बन रहा दीन।


उठती अंतस्तल से सदैव

दुर्ललित लालसा जो कि कांत,

वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो

दब जाती अपने आप शांत।


"निज उद्गम का मुख बंद किये

कब तक सोयेंगे अलस प्राण,

जीवन की चिर चंचल पुकार

रोये कब तक, है कहाँ त्राण


श्रद्धा का प्रणय और उसकी

आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति,

जिसमें व्याकुल आलिंगन का

अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति


भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं

नव-नव स्मित रेखा में विलीन,

अनुरोध न तो उल्लास,

नहीं कुसुमोद्गम-साकुछ भी नवीन


आती है वाणी में न कभी

वह चाव भरी लीला-हिलोर,

जिसमेम नूतनता नृत्यमयी

इठलाती हो चंचल मरोर।


जब देखो बैठी हुई वहीं

शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,

या अन्न इकट्ठे करती है

होती न तनिक सी कभी क्लांत