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उभयचर-9 / गीत चतुर्वेदी

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उसके मुख का तेज उसका नहीं है उसकी पतली कमर उसकी नहीं है उसकी लंबी टांगें उसकी नहीं हैं उसके देह की लोच भी उसकी नहीं वह ख़ुद नहीं जानती कि वह किसकी है फिर भी मदोन्मत्त कैसे चल रही है चली आ रही उसे नहीं पता वह खाई जाएगी या अधखाई फिंका जाएगी शोकेस में सजाई जाएगी या पताका-सी लहराई जाएगी उसको अपने मन का कर लेने दो क्योंकि उसे नहीं पता कि जिस मन को वह अपना मानती आ रही वह भी दरअसल उसका है नहीं और मानना तो सिर्फ़ एक अवधारणा होता है और अवधारणाओं की उत्पत्ति अनुपस्थितियों पर व्यापक ऐतबार के लिए होती हैं मसलन यही एक अवधारणा कि दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है और मैं बहुत ख़ुश हूं और वह लेखक इसलिए महान है कि उसे पढ़कर दुनिया की ख़ूबसूरती पर यक़ीन हो जाता है