भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है समंदर को सफीना कर लिया / कविता किरण
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:05, 11 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता किरण |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> है समंदर को सफ़ीन…)
है समंदर को सफ़ीना कर लिया
हमने यूँ आसान जीना कर लिया
अब नहीं है दूर मंजिल सोचकर
साफ़ माथे का पसीना कर लिया
जीस्त के तपते झुलसते जेठ को
रो के सावन का महीना कर लिया
आपने अपना बनाकर हमसफ़र
एक कंकर को नगीना कर लिया
हँस के नादानों के पत्थर खा लिए
घर को ही मक्का मदीना कर लिया