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मोम के जिस्म जब पिघलते हैं / कविता किरण
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मोम के जिस्म जब पिघलते हैं
तो पतंगो के दिल भी जलते हैं
जिनको ख़ुद पर नहीं भरोसा है
भीड़ के साथ-साथ चलते हैं
दिन में तारों को किसने देखा है
चोर रातों में ही निकलते हैं
कैसे पहचान लेंगे चेहरे से
लोग गिरगिट हैं रंग बदलते हैं
सख़्तियाँ मुज़रिमों पे होती है
तब कहीं जाके सच उगलते हैं
प्यार से सींचकर ’किरण‘ देखो
पतझड़ों में भी पेड़ फलते हैं