भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर ढह रहा है / सुतिन्दर सिंह नूर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:14, 12 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुतिन्दर सिंह नूर |संग्रह= }} Category:पंजाबी {{KKCatKavita‎}} <…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर ढह रहा है
शहर ढहने से
शहर मर नहीं रहा
अपितु ज़िंदा हो रहा है
ढहता हुआ शहर
आदमी का सपना नहीं होता
आदमी सड़कों पर चलना चाहता है,
हवा से बतियाना चाहता है

आकाश और हवा का गला घोंटकर
जब कहीं भी लोहे-सीमेंट की
उसरती है मीनार
शहर होने लगता है बीमार
भीतर से लगता है बिखरने
आदमी से लगता है उसका रिश्ता टूटने
शहर के साँस लेने से ही
आदमी जीवित रहता है

उसका ख़्वाब ज़िंदा रहता है
शहर की मौत के सौदागर चीख़ते-चिल्लाते
एक जंग का ऐलान करते हैं
आँगन में चुपचाप खेलते
बच्चों के ख़िलाफ़
दीवारों पर लगी बेलों
फूल-पौधों के विरुद्ध
और उन सबके ख़िलाफ़
जो साँस लेते हैं
जो सपने देखते हैं

मगर शहर ढहने के साथ
शहर मर नहीं रहा
शहर और भी ज़िंदा हो रहा है।


मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : तरसेम