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मरते आदमी के साथ-साथ / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

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मरता आदमी
क्या चुपचाप मरता है?
देखते नहीं हो
कन्धे ज़ख्मी हो गये हैं उसके
मृत्यु को ठेलते-ठेलते
घुटनों से रक्त बहता है?

छटपटाता है वह रेत पर मछली की तरह
चीख़ता है जैसे सुरंग में घुसती हुई हवा
अंगों को बेचैनी में मरोड़ता
साँप की तरह हाफता है
                  फन पटकता है

फिर आती है निर्जन मृत्यु
सागर लहरों को समेट लेता है
लपटें बुझ जाती हैं
और जलता हुआ जंगल ठण्डा हो जाता है ।


जले हुए जंगल से कोई आवाज नहीं आती
आदिवासी उसे मनमा जोत लेता है
छटपटाहट शान्त हो जाने के बाद
आदमी हो जाता है
फिर कोई मल्लाह चाहे रेते
या चील चोंच में दबा कर उड़ जाय

मरी हुई मछली कोई प्रतिरोध नहीं करती
दाँत तोड़ लिये जाने के बाद
जहरीला साँप तमाशा बन जाता है ।

मृत्यु चाहे मछली की हो या सागर की
साँप की हो या जंगल की
क्या अचानक आती है ?

चीरे की ओर नहीं बढ़ती मछली
सुरंग में नहीं घुसती हवा
और सागर जब लहरों को समेटने लगता है
या साँप जब मैदानों में रेंगने लगता है
तो वह मृत्यु की गिरफ्त में होता है

मृत्यु कुछ नहीं करती
सिर्फ आदमी को उसकी याददाश्त से अगल कर देती है
वह भूल जाता है
कब उसका नाम मतदाता सूची से खारिज कर दिया गया ।
वह पिटारी से धीरे-धीरे निकल कर
बीन की धुन पर नाचने लगता है
और दीवार पर टँगे कैलेण्डर की तारीख़
बदल देता है

फिर पड़ोसी कितना भी चीखे-चिल्लाए
कितने ही जोर से दरवाजा भड़भड़ाए
वह अपने बिस्तरबन्द में
अपने को महफ़ूज महसूस करता है ।


पागल नहीं होता मरा हुआ आदमी
सावधानी से मुस्कराता है
ज़ोर नहीं लगाता राजकवि
पत्थर नहीं मारता मुख्य अतिथि
जेब में हमेशा एक शीशा
और एक कंघी रखता है

स्वाभाविक और ख़ूबसूरत लगता है उसे
कर्फ्यू में काँपता नगर
अन्धकार में धँसता जनपथ
ख़ामोश चौराहा, बन्द दरवाज़ा
धीरे-धीरे स्याह होता क्षितिज
समुद्र और चेहरे पर घिरता हुआ बादल
और वह उसकी खूबसूरती पर रीझ कर
कविताएँ लिख देता है ।

चौराहे पर लाल बत्ती होते ही
उछल कर दफ़्तर में घुस जाता है
बॉस के आगे गिड़गिड़ाता
चपरासी पर गुर्राता है
देखते हुए भी नहीं देखता
सुनते हुए भी नहीं सुनता
इन्द्रियों को त्रिकुटी में सही सलामत पाकर
अलौकिक आनन्द में निमग्न हो जाता है ।
फिर कोई युद्धक उसके बालों को नोचता हुआ
गुज़र जाय
उसका सम्मोहन नहीं टूटता
मृत्यु क्या कर सकती है
सिवा उसकी संवेदनात्मक शिराओं को भोथर कर देने के ?


क्या मरते आदमी से पूछा है तुमने क्या चाहता है ?
पूछा है कि दर्शक-दीर्घा में
अचानक उसे दिल का दौरा क्यों हुआ  ?
वह सही-सही बता सकता है
पर शायद नहीं बतायेगा
कि रात दंगाइयों ने
उसके और उसके परिवार के साथ क्या किया
एक दुर्लभ पाण्डुलिपि की तरह जल जाएगा
देखता हुआ अपनी मौत
अस्पताल के कमरे में
सख़्त दीवारों और बन्द दरवाज़ों से घूरती हुई मौत
जिसे अपनी पत्नी के चेहरे
और बच्चों की आँखों में
जीवन-भर देखता रहा है
और चुप रहा है
भाषा की मजबूरियाँ समझते हुए

जानते हुए कि मौत कहीं बाहर नहीं है
उसकी जिन्दगी में ही घुली-मिली है
और वह जिसकी प्रतीक्षा कर रहा है

प्रतीक्षा कर रहा है कि कोई आयेगा
और कुछ होगा
पर क्या?....
कौन?....
कब?....

शहर में कर्फ्यू नहीं लगा होता
तो बच सकता था वह आदमी
जिसे ज़िन्दा रहने के मौलिक अधिकार से
वंचित कर दिया गया
क्या फ़र्क पड़ता है
किसी भी कोठरी की कोठरी की कोठरी में बन्द कर दो
रक्त है तो चिल्लाकर पुकारेगा रक्त को

क्या फ़र्क पड़ता है
मरते आदमी के देश और काल में
सीधी सड़क बकरे को वधस्थल की ओर ही ले जाएगी
क्या तुम्हें बताना शेष रह जाएगा
कि मरते आदमी के साथ
कविता भी मर जाती है
और लोकसभा भी ?