इंसान ही था वह / अशोक तिवारी
साँचा:'''इंसान ही था वह''' { |रचनाकार=अशोक तिवारी }}
एक इंसान ही था वह
हमारे बीच
हमारी ही तरह
हँसते हुए
गुनगुनाते हुए
लगाते हुए ठहाके
धकेलते हुए आसपास की हवा को
हाथ फिराते हुए बालों में
अपनी ही अदा में
गुदगुदाते हुए पलों को
बिखेरते हुए माहौल में मुस्कराहट
गुस्सा करते हुए
हर उस बात पर
जो हो आदमीयत के खिलाफ
भाईचारे के खिलाफ
इंसान ही था वह
हमारे बीच
हमारी ही तरह
ठहरा हुआ था जो
एक झील की तरह
बहता हुआ मगर
ऊंचे झरने और
उद्दाम वेग से बहने वाली
नदी की तरह
पहचानते हुए
समय की नव्ज़ को
भरते हुए मुठ्ठी में
ज़माने की तपिश
एक इंसान ही था वह
हमारे बीच
हमारी ही तरह
संस्कृति के कितने ही मायनों को
करके गया अभिव्यक्त
नुक्कड़-नुक्कड़
साफगोई और बेबाकीपन से
खुलेपन से जो भरता था
अपनी मजबूत बाँहों में
हमख्याल और हर ज़रुरतमंद को
एक इंसान ही की तरह
एक इंसान ही था वह
हमारे बीच
हमारी ही तरह
देखता हुआ
एक सर्वहारा के सपने को
महसूस करते हुए
पीड़ित की पीड़ा को
अपने अन्दर कहीं गहरे में
अपने सपनों में
रखते हुए एक बुनियाद मजबूती के साथ
थपथपाता रहा जो निराशा के पलों में
हमारे अपने कंधे
अपनत्व और सादगी के साथ
और करता रहा प्रेरित
बदने को आगे ही आगे
विषम परिस्थितियों में भी .......
एक इंसान ही था वह
जो चला गया एकाएक
एक इंसान की तरह
जूझते हुए
विषैली हवा से
व्यवस्था से
अपने आपसे
भर गया जो
जीने की चाहत और मकसद
हमारे दिलों में
अपने जाने की कीमत पर
वो जो चला गया
लाखों दिलों में
पैदा करते हुए जज्बा
उस सपने का
जो इंसान को बने रहने दे बस इंसान
एक नायक था हमारे वक़्त का
एक इंसान ही था वह
हमारी ही तरह
हमारे आसपास
(सफ़दर हाश्मी के लिए)