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कोई अधूरा पूरा नहीं होता / विनोद कुमार शुक्ल
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कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते
परंतु इस असमाप्त –
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया
इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।