भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंडुक / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:49, 29 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: वे अकेले पक्षी होते हैं<br /> जिनकी आवाज से<br /> लगातार आबाद रहती हैं<br /> …)
वे अकेले पक्षी होते हैं
जिनकी आवाज से
लगातार आबाद रहती हैं
जेठ-बैशाख की तपती दोपहरें
वे पंडुक होते हैं
जो जलती हुई पृथ्वी के
झुलसे हुए बबूलों पर
बनाते हैं घोंसले
पृथ्वी के इस सबसे दुर्गम समय में
वे भूलते नहीं हैं प्यार
और रचते हैं सपने
अंडों में सांस ले रहे पंडुकों के लिए
सघन अमराइयों में सुस्ताते
बटोहियों की प्यास के लिए
पानी नहीं बन सकती पंडुक की आवाज
लेकिन एक धारदार औजार की तरह
वह काटती रहती है
दोपहर के सख्त काठ को
क्या उस आवाज का मतलब
सिर्फ एक आवाज है?
या वह एक रूलाई है
जो टूट चुके सपनों की
कसक से फूटती है
या एक गीत
जिसमें उनका साथ देने वाला
उस जेठ-बैशाख की दोपहरी में
कोई नहीं होता.