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चरख़ा गीत / सुमित्रानंदन पंत
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भ्रम, भ्रम, भ्रम,--
घूम घूम भ्रम भ्रम रे चरख़ा
कहता: ’मैं जन का परम सखा,
जीवन का सीधा सा नुसख़ा—
श्रम, श्रम, श्रम!’
कहता: ’हे अगणित दरिद्रगण!
जिनके पास न अन्न, धन, वसन,
मैं जीवन उन्नति का साधन-
क्रम, क्रम, क्रम!’
भ्रम, भ्रम, भ्रम,--
’धुन रुई, निर्धनता दो धुन,
कात सूत, जीवन पट लो बुन;
अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन,
थम, थम, थम!’
’नग्न गात यदि भारत मा का,
तो खादी समृद्धि की राका,
हरो देश की दरिद्रता का
तम, तम, तम!’
भ्रम, भ्रम, भ्रम,--
कहता चरख़ा प्रजातंत्र से;
’मैं कामद हूँ सभी मंत्र से’;
कहता हँस आधुनिक यंत्र से,
’नम, नम, नम!’
’सेवक पालक शोषित जन का,
रक्षक मैं स्वदेश के धन का,
कातो हे, काटो तन मन का
भ्रम, भ्रम, भ्रम,--
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९