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इड़ा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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"किस गहन गुहा से अति अधीर

झंझा-प्रवाह-सा निकला

यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर

ले साथ विकल परमाणु-पुंज


नभ, अनिल, अनल,

भयभीत सभी को भय देता

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा


जगती को करता अधिक दीन

निर्माण और प्रतिपद-विनाश में

दिखलाता अपनी क्षमता

संघर्ष कर रहा-सा सब से,


सब से विराग सब पर ममता

अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब,

यह छूट पड़ा है विषम तीर

किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?


देखे मैंने वे शैल-श्रृंग

जो अचल हिमानी से रंजित,

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग

अपने जड़-गौरव के प्रतीक


वसुधा का कर अभिमान भंग

अपनी समाधि में रहे सुखी,

बह जाती हैं नदियाँ अबोध

कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,


वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध

स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी

चाहता नहीं इस जीवन की

मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,


हूँ चाह रहा अपने मन की

जो चूम चला जाता अग-जग

प्रति-पग में कंपन की तरंग

वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।


'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''