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मज़दूरनी के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

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नारी की संज्ञा भुला, नरों के संग बैठ,
चिर जन्म सुहृद सी जन हृदयों में सहज पैठ,
जो बँटा रही तुम जग जीवन का काम काज
तुम प्रिय हो मुझे: न छूती तुमको काम लाज।

सर से आँचल खिसका है,--धूल भरा जूड़ा,--
अधखुला वक्ष,--ढोती तुम सिर पर धर कूड़ा;
हँसती, बतलाती सहोदरा सी जन जन से,
यौवन का स्वास्थ्य झलकता आतप सा तन से।

कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
स्त्री नहीं, आज मानवी बन गई तुम निश्चित,
जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!

निज द्वन्द्व प्रतिष्ठा भूल जनों के बैठ साथ,
जो बँटा रही तुम काम काज में मधुर हाथ,
तुमने निज तन की तुच्छ कंचुकी को उतार
जग के हित खोल दिए नारी के हृदय द्वार!

रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०