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दिवा स्वप्न / सुमित्रानंदन पंत

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दिन की इस विस्तृत आभा में, खुली नाव पर,
आर पार के दृश्य लग रहे साधारणतर।
केवल नील फलक सा नभ, सैकत रजतोज्वल,
और तरल विल्लौर वेश्मतल सा गंगा जल--
चपल पवन के पदाचार से अहरह स्पंदित--
शांत हास्य से अंतर को करते आह्लादित।
मुक्त स्निग्ध उल्लास उमड़ जल हिलकोरों पर
नृत्य कर रहा, टकरा पुलकित तट छोरों पर।

यह सैकत तट पिघल पिघल यदि बन जाता जल
बह सकती यदि धरा चूमती हुई दिगंचल,
यदि न डुबाता जल, रह कर चिर मृदुल तरलतर,
तो मै नाव छोड़, गंगा के गलित स्फटिक पर
आज लोटता, ज्योति जड़ित लहरों सँग जी भर!
किरणों से खेलता मिचौंनी मैं लुक छिप कर,
लहरों के अंचल में फेन पिरोता सुंदर,
हँसता कल कल: मत्त नाचता, झूल पैंग भर!

कैसा सुंदर होता, वदन न होता गीला,
लिपटा रहता सलिल रेशमी पट सा ढीला!
यह जल गीला नहीं, गलित नभ केवल चंचल,
गीला लगता हमें, न भीगा हुआ स्वयं जल।
हाँ, चित्रित-से लगते तृण-तरु भू पर बिम्बित,
मेरे चल पद चूम धरणि हो उठती कंपित।

एक सूर्य होता नभ में, सौ भू पर विजड़ित,
सिहर सिहर क्षिति मारुत को करती आलिंगित।
निशि में ताराओं से होती धरा जब खचित
स्वप्न देखता स्वर्ग लोक में मैं ज्योत्स्ना स्मित!

गुन के बल चल रही प्रतनु नौका चढ़ाव पर,
बदल रहे तट दृश्य चित्रपट पर ज्यों सुंदर।
वह, जल से सट कर उड़ते है चटुल पनेवा,
इन पंखो की परियों को चाहिए न खेवा!
दमक रही उजियारी छाती, करछौंहे पर,
श्याम घनों से झलक रही बिजली क्षण क्षण पर!
उधर कगारे पर अटका है पीपल तरुवर
लंबी, टेढ़ी जड़ें जटा सी छितरीं बाहर।
लोट रहा सामने सूस पनडुब्बी सा तिर,
पूँछ मार जल से चमकीली, करवट खा फिर।

सोन कोक के जोड़े बालू की चाँदो पर
चोंचों से सहला पर, क्रीड़ा करते सुखकर।
बैठ न पातीं, चक्कर देतीं देव दिलाई,
तिरती लहरों पर सुफ़ेद काली परछाँई।
लो, मछरंगा उतर तीर सा नीचे क्षण मे,
पकड़ तड़पती मछली को, उड़ गया गगन में।
नरकुल सी चोंचें ले चाहा फिरते फर्‌ फर्‌।
मँडराते सुरख़ाब व्योम में, आर्त नाद कर,- -
काले, पीले, खैरे, बहुरंगे चित्रित पर
चमक रहे बारी बारी स्मित आभा से भर!

वह, टीले के ऊपर, तूँबी सा, बबूल पर,
सरपत का घोंसला बया का लटका सुंदर!
दूर उधर, जंगल में भीटा एक मनोहर
दिखलाई देता है वन-देवों का सा घर।
जहाँ खेलते छायातप, मारुत तरु-मर्मर,
स्वप्न देखती विजन शांति में मौन दोपहर!
वन की परियाँ धूपछाँह की साड़ी पहने
जहाँ विचरतीं चुनने ऋतु कुसुमों के गहने।

वहाँ मत्त करती मन नव मुकुलों की सौरभ,
गुंजित रहता सतत द्रुमों का हरित श्वसित नभ!
वहाँ गिलहरी दौड़ा करती तरु डालों पर
चंचल लहरी सी, मृदु रोमिल पूँछ उठा कर।
और वन्य विहगों-कीटों के सौ सौ प्रिय स्वर
गीत वाद्य से बहलाते शोकाकुल अंतर।

वहीं कहीं, जी करता, मैं जाकर छिप जाऊँ,
मानव जग के क्रंदन से छुटकारा पाऊँ।
प्रकृति नीड़ मे व्योम खगों के गाने गाऊँ,
अपने चिर स्नेहातुर उर की व्यथा भुलाऊँ!

रचनाकाल: जनवरी’ ४०