भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँ कभी आया नहीं / नवीन सागर
Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:20, 5 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवीन सागर |संग्रह=नींद से लम्बी रात / नवीन सागर…)
गरदन झुकाए बरसों
दरवाजे से निकलने
और दस्तक देने लगा
बहुत धुंधले दिनों में
अपना नाम
किसी और का लगा
मैं जब कोई और लगा
जब खुद को
रोक कर अकेले में
मैंने पूछा-कौन हो यहां!
छुड़ाकर खुद से हाथ
अंधेरे में उतर गया
जिसमें एक ढहती हुई दीवार उठ रही थी
मैं तब कोई नहीं था अकेले में
छेद से रिसता हुआ
कहां-कहां रह गया जीवन!
जहॉं कभी आया नहीं
मेरा जीवन इस तरह बिखरा हुआ सामान था.
कि मैं अंतिम कुली हूं
और उसे छोड़कर जा रहा हूं.