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एक बूढ़े की पीठ / लीलाधर मंडलोई

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दीखता नहीं, होता है आस-पास अभिनंदन में जागता
देखता हूं मैं तो दिखती है बस
बंजर1 और हेलोन2 में शामिल हुई जाती
सुलकम3 की दोस्‍ती

दोस्‍त मेरे बहुत दूर या जुदा मुझसे
शामिल तक नहीं आमंत्रण में और यहां
कोई अनकही खबर भी जो उड़ती है महुल की बेलों से
साल की पत्तियों से फूटती लगती है आस-उम्‍मीद

कन्‍हर4 में घूमता एक मैं, अधिकाधिक बॉंच पाता हूं
मौसम के अंतिम स्‍वेदकण कि होते हैं मेरे देह अनुभव में जो
इधर नजीक के शुष्‍क तालाब के अंतिम जलसंसार में
इतनी हलचल तो होती है कि सदापर्णी से फूटती
अंतिम अस्‍फुट प्रार्थनाएं इंदराज होती हैं शुरूआत में

सूखती ऊंची घास के सघन मैदान की
अपनी भूमिका है जिसमें इन दिनों भागती है
हिरण मादा श्रृंगों को छुपातीं
ढूंढती सुरक्षित जगह नजर के पार

उछलकूद मचाते बंदरों की तांका-झांकी से दूर
लेता है मृगछौना जन्‍म और यह खबर
फैलती है इतनी अचूक कि इसी समय
श्‍वेतकेशी घऊरा की डगालों पर जागता है पंछियों का सोहर

मैं जो अपरिचित इस जीव-जगत का प्रवासी
असमंजस और विरल उछाह में भरा
करता हूं राह मृगछौने की तरफ
आसन्‍न ऋतु की आहट में पास खड़े दीखते हैं सालिम अली

कहीं से आकर टकरात है मंद समीर
एक पल को झपकती हैं ऑंखें
और आसमान से शुरू हुई बूंदा-बांदी के बीच
एक बूढ़े की पीठ दूर तक, दूर होती दिखाई देती है
घास के मैदान से सुनाई देती है किसी के भागने की आवाज