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स्वप्न / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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कामायनी सकल अपना सुख

स्वप्न बना-सा देख रही,

युग-युग की वह विकल प्रतारित

मिटी हुई बन लेख रही-


जो कुसुमों के कोमल दल से

कभी पवन पर अकिंत था,

आज पपीहा की पुकार बन-

नभ में खिंचती रेख रही।


इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी

आगे जलती है उल्लास भरी,

मनु का पथ आलोकित करती

विपद-नदी में बनी तरी,


उन्नति का आरोहण, महिमा

शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं,

तीव्र प्रेरणा की धारा सी

बही वहाँ उत्साह भरी।


वह सुंदर आलोक किरन सी

हृदय भेदिनी दृष्टि लिये,

जिधर देखती-खुल जाते हैं

तम ने जो पथ बंद किये।


मनु की सतत सफलता की

वह उदय विजयिनी तारा थी,

आश्रय की भूखी जनता ने

निज श्रम के उपहार दिये


मनु का नगर बसा है सुंदर

सहयोगी हैं सभी बने,

दृढ़ प्राचीरों में मंदिर के

द्वार दिखाई पड़े घने,


वर्षा धूप शिशिर में छाया

के साधन संपन्न हुये,

खेतों में हैं कृषक चलाते हल

प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।


उधर धातु गलते, बनते हैं

आभूषण औ' अस्त्र नये,

कहीं साहसी ले आते हैं

मृगया के उपहार नये,


पुष्पलावियाँ चुनती हैं बन-

कुसुमों की अध-विकच कली,

गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज,

जुटे नवीन प्रसाधन ये।


घन के आघातों से होती जो

प्रचंड ध्वनि रोष भरी,

तो रमणी के मधुर कंठ से

हृदय मूर्छना उधर ढरी,


अपने वर्ग बना कर श्रम का

करते सभी उपाय वहाँ,

उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से

पुर की श्री दिखती निखरी।


देश का लाघव करते

वे प्राणी चंचल से हैं,

सुख-साधन एकत्र कर रहे

जो उनके संबल में हैं,


बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम,

बल की विस्मृत छाया में,

नर-प्रयत्न से ऊपर आवे

जो कुछ वसुधा तल में है।


सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित

सफल हो रहा हरा भरा,

प्रलय बीव भी रक्षित मनु से

वह फैला उत्साह भरा,


आज स्वचेतन-प्राणी अपनी

कुशल कल्पनायें करके,

स्वावलंब की दृढ़ धरणी

पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।


श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में

मलय-बालिका-सी चलती,

सिंहद्वार के भीतर पहुँची,

खड़े प्रहरियों को छलती,


ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत

बने रम्य प्रासाद वहाँ,

धूप-धूप-सुरभित-गृह,

जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।


स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से

लगे हुए उद्यान बने,

ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बीच में,

कहीं लता के कुंज घने,


जिनमें दंपति समुद विहरते,

प्यार भरे दे गलबाहीं,

गूँज रहे थे मधुप रसीले,

मदिरा-मोद पराग सने।


देवदारू के वे प्रलंब भुज,

जिनमें उलझी वायु-तरंग,

मिखरित आभूषण से कलरव

करते सुंदर बाल-विहंग,


आश्रय देता वेणु-वनों से

निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को,

नाग-केसरों की क्यारी में

अन्य सुमन भी थे बहुरंग


नव मंडप में सिंहासन

सम्मुख कितने ही मंच तहाँ,

एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें

चर्म से सुखद जहाँ,


आती है शैलेय-अगुरु की

धूम-गंध आमोद-भरी,

श्रद्धा सोच रही सपने में

'यह लो मैं आ गयी कहाँ'



'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''