स्वप्न / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
लेखक: जयशंकर प्रसाद
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
कामायनी सकल अपना सुख
स्वप्न बना-सा देख रही,
युग-युग की वह विकल प्रतारित
मिटी हुई बन लेख रही-
जो कुसुमों के कोमल दल से
कभी पवन पर अकिंत था,
आज पपीहा की पुकार बन-
नभ में खिंचती रेख रही।
इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी
आगे जलती है उल्लास भरी,
मनु का पथ आलोकित करती
विपद-नदी में बनी तरी,
उन्नति का आरोहण, महिमा
शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं,
तीव्र प्रेरणा की धारा सी
बही वहाँ उत्साह भरी।
वह सुंदर आलोक किरन सी
हृदय भेदिनी दृष्टि लिये,
जिधर देखती-खुल जाते हैं
तम ने जो पथ बंद किये।
मनु की सतत सफलता की
वह उदय विजयिनी तारा थी,
आश्रय की भूखी जनता ने
निज श्रम के उपहार दिये
मनु का नगर बसा है सुंदर
सहयोगी हैं सभी बने,
दृढ़ प्राचीरों में मंदिर के
द्वार दिखाई पड़े घने,
वर्षा धूप शिशिर में छाया
के साधन संपन्न हुये,
खेतों में हैं कृषक चलाते हल
प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।
उधर धातु गलते, बनते हैं
आभूषण औ' अस्त्र नये,
कहीं साहसी ले आते हैं
मृगया के उपहार नये,
पुष्पलावियाँ चुनती हैं बन-
कुसुमों की अध-विकच कली,
गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज,
जुटे नवीन प्रसाधन ये।
घन के आघातों से होती जो
प्रचंड ध्वनि रोष भरी,
तो रमणी के मधुर कंठ से
हृदय मूर्छना उधर ढरी,
अपने वर्ग बना कर श्रम का
करते सभी उपाय वहाँ,
उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से
पुर की श्री दिखती निखरी।
देश का लाघव करते
वे प्राणी चंचल से हैं,
सुख-साधन एकत्र कर रहे
जो उनके संबल में हैं,
बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम,
बल की विस्मृत छाया में,
नर-प्रयत्न से ऊपर आवे
जो कुछ वसुधा तल में है।
सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित
सफल हो रहा हरा भरा,
प्रलय बीव भी रक्षित मनु से
वह फैला उत्साह भरा,
आज स्वचेतन-प्राणी अपनी
कुशल कल्पनायें करके,
स्वावलंब की दृढ़ धरणी
पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।
श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में
मलय-बालिका-सी चलती,
सिंहद्वार के भीतर पहुँची,
खड़े प्रहरियों को छलती,
ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत
बने रम्य प्रासाद वहाँ,
धूप-धूप-सुरभित-गृह,
जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।
स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से
लगे हुए उद्यान बने,
ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बीच में,
कहीं लता के कुंज घने,
जिनमें दंपति समुद विहरते,
प्यार भरे दे गलबाहीं,
गूँज रहे थे मधुप रसीले,
मदिरा-मोद पराग सने।
देवदारू के वे प्रलंब भुज,
जिनमें उलझी वायु-तरंग,
मिखरित आभूषण से कलरव
करते सुंदर बाल-विहंग,
आश्रय देता वेणु-वनों से
निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को,
नाग-केसरों की क्यारी में
अन्य सुमन भी थे बहुरंग
नव मंडप में सिंहासन
सम्मुख कितने ही मंच तहाँ,
एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें
चर्म से सुखद जहाँ,
आती है शैलेय-अगुरु की
धूम-गंध आमोद-भरी,
श्रद्धा सोच रही सपने में
'यह लो मैं आ गयी कहाँ'
और सामने देखा निज
दृढ़ कर में चषक लिये,
मनु, वह क्रतुमय पुरुष वही
मुख संध्या की लालिमा पिये।
मादक भाव सामने, सुंदर
एक चित्र सा कौन यहाँ,
जिसे देखने को यह जीवन
मर-मर कर सौ बार जिये-
इड़ा ढालती थी वह आसव,
जिसकी बुझती प्यास नहीं,
तृषित कंठ को, पी-पीकर भी
जिसमें है विश्वास नहीं,
वह-वैश्वानर की ज्वाला-सी-
मंच वेदिका पर बैठी,
सौमनस्य बिखराती शीतल,
जड़ता का कुछ भास नहीं।
मनु ने पूछा "और अभी कुछ
करने को है शेष यहाँ?"
बोली इड़ा "सफल इतने में
अभी कर्म सविशेष कहाँ
क्या सब साधन स्ववश हो चुके?"
नहीं अभी मैं रिक्त रहा-
देश बसाया पर उज़ड़ा है
सूना मानस-देश यहाँ।
सुंदर मुख, आँखों की आशा,
किंतु हुए ये किसके हैं,
एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का,
भरे भाव कुछ रिस के हैं,
कुछ अनुरोध मान-मोचन का
करता आँखों में संकेत,
बोल अरी मेरी चेतनते
तू किसकी, ये किसके हैं?"
"प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति
सबका ही गुनती हूँ मैं,
वह संदेश-भरा फिर कैसा
नया प्रश्न सुनती हूँ मैं"
"प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी
मुझे न अब भ्रम में डालो,
मधुर मराली कहो 'प्रणय के
मोती अब चुनती हूँ मैं'
मेरा भाग्य-गगन धुँधला-सा,
प्राची-पट-सी तुम उसमें,
खुल कर स्वयं अचानक कितनी
प्रभापूर्ण हो छवि-यश में
मैं अतृप्त आलोक-भिखारी
ओ प्रकाश-बालिके बता,
कब डूबेगी प्यास हमारी
इन मधु-अधरों के रस में?
'ये सुख साधन और रुपहली-
रातों की शीतल-छाया,
स्वर-संचरित दिशायें, मन है
उन्मद और शिथिल काया,
तब तुम प्रजा बनो मत रानी"
नर-पशु कर हुंकार उठा,
उधर फैलती मदिर घटा सी
अंधकार की घन-माया।
आलिंगन फिर भय का क्रदंन
वसुधा जैसे काँप उठी
वही अतिचारी, दुर्बल नारी-
परित्राण-पथ नाप उठी
अंतरिक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार
भयानक हलचल थी,
अरे आत्मजा प्रजा पाप की
परिभाषा बन शाप उठी।
उधर गगन में क्षुब्ध हुई
सब देव शक्तियाँ क्रोध भरी,
रुद्र-नयन खुल गया अचानक-
व्याकुल काँप रही नगरी,
अतिचारी था स्वयं प्रजापति,
देव अभी शिव बने रहें
नहीं, इसी से चढ़ी शिजिनी
अजगव पर प्रतिशोध भरी।
प्रकृति त्रस्त थी, भूतनाथ ने
नृत्य विकंपित-पद अपना-
उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब
होने जाती थी सपना
आश्रय पाने को सब व्याकुल,
स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध,
फिर कुछ होगा, यही समझ कर
वसुधा का थर-थर कँपना।
काँप रहे थे प्रलयमयी
क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु,
अपनी-अपनी पड़ी सभी को,
छिन्न स्नेह को कोमल तंतु,
आज कहाँ वह शासन था
जो रक्षा का था भार लिये,
इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर
बाहर निकल चली थि किंतु।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''