संघर्ष / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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श्रद्धा का था स्वप्न
किंतु वह सत्य बना था,
इड़ा संकुचित उधर
प्रजा में क्षोभ घना था।
भौतिक-विप्लव देख
विकल वे थे घबराये,
राज-शरण में त्राण प्राप्त
करने को आये।
किंतु मिला अपमान
और व्यवहार बुरा था,
मनस्ताप से सब के
भीतर रोष भरा था।
क्षुब्ध निरखते वदन
इड़ा का पीला-पीला,
उधर प्रकृति की रुकी
नहीं थी तांड़व-लीला।
प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही
सब जुड़ आये,
प्रहरी-गण कर द्वार बंद
थे ध्यान लगाये।
रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी
में दबी-लुकी-सी,
रह-रह होती प्रगट मेघ की
ज्योति झुकी सी।
मनु चिंतित से पड़े
शयन पर सोच रहे थे,
क्रोध और शंका के
श्वापद नोच रहे थे।
" मैं प्रजा बना कर
कितना तुष्ट हुआ था,
किंतु कौन कह सकता
इन पर रुष्ट हुआ था।
कितने जव से भर कर
इनका चक्र चलाया,
अलग-अलग ये एक
हुई पर इनकी छाया।
मैं नियमन के लिए
बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,
इनको कर एकत्र,
चलाता नियम बना कर।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''