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संघर्ष / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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श्रद्धा का था स्वप्न

किंतु वह सत्य बना था,

इड़ा संकुचित उधर

प्रजा में क्षोभ घना था।


भौतिक-विप्लव देख

विकल वे थे घबराये,

राज-शरण में त्राण प्राप्त

करने को आये।


किंतु मिला अपमान

और व्यवहार बुरा था,

मनस्ताप से सब के

भीतर रोष भरा था।


क्षुब्ध निरखते वदन

इड़ा का पीला-पीला,

उधर प्रकृति की रुकी

नहीं थी तांड़व-लीला।


प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही

सब जुड़ आये,

प्रहरी-गण कर द्वार बंद

थे ध्यान लगाये।


रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी

में दबी-लुकी-सी,

रह-रह होती प्रगट मेघ की

ज्योति झुकी सी।


मनु चिंतित से पड़े

शयन पर सोच रहे थे,

क्रोध और शंका के

श्वापद नोच रहे थे।


" मैं प्रजा बना कर

कितना तुष्ट हुआ था,

किंतु कौन कह सकता

इन पर रुष्ट हुआ था।


कितने जव से भर कर

इनका चक्र चलाया,

अलग-अलग ये एक

हुई पर इनकी छाया।


मैं नियमन के लिए

बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,

इनको कर एकत्र,

चलाता नियम बना कर।


किंतु स्वयं भी क्या वह

सब कुछ मान चलूँ मैं,

तनिक न मैं स्वच्छंद,

स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं


जो मेरी है सृष्टि

उसी से भीत रहूँ मैं,

क्या अधिकार नहीं कि

कभी अविनीत रहूँ मैं?


श्रद्धा का अधिकार

समर्पण दे न सका मैं,

प्रतिपल बढ़ता हुआ भला

कब वहाँ रुका मैं


इड़ा नियम-परतंत्र

चाहती मुझे बनाना,

निर्वाधित अधिकार

उसी ने एक न माना।


विश्व एक बन्धन

विहीन परिवर्त्तन तो है,

इसकी गति में रवि-

शशि-तारे ये सब जो हैं।


रूप बदलते रहते

वसुधा जलनिधि बनती,

उदधि बना मरूभूमि

जलधि में ज्वाला जलती


तरल अग्नि की दौड़

लगी है सब के भीतर,

गल कर बहते हिम-नग

सरिता-लीला रच कर।


यह स्फुलिग का नृत्य

एक पल आया बीता

टिकने कब मिला

किसी को यहाँ सुभीता?


कोटि-कोटि नक्षत्र

शून्य के महा-विवर में,

लास रास कर रहे

लटकते हुए अधर में।


उठती है पवनों के

स्तर में लहरें कितनी,

यह असंख्य चीत्कार

और परवशता इतनी।


यह नर्त्तन उन्मुक्त

विश्व का स्पंदन द्रुततर,

गतिमय होता चला

जा रहा अपने लय पर।


कभी-कभी हम वही

देखते पुनरावर्त्तन,

उसे मानते नियम

चल रहा जिससे जीवन।




'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''