भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इच्छाएँ अपनी जगह खोजती रहती हैं / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:20, 12 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीलाधर मंडलोई |संग्रह=मगर एक आवाज / लीलाधर मंडलो…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम होने को है और मावठा बरस रहा है
अजब सुस्‍ती कि अनमना पस्‍त मैं
तलब चाय की बेतरह लेकिन रसोई जैसे एक लंबा दूर दृश्‍य
काहिली में बिखरा सामान चौतरफ
सोने-जागने का मन धुंधलके में खोया कहीं
बिछौना मेरी दुनिया भीतर बस और मावठा द्वार खटखटाता

दो एक किताबें, अखबार और एक पुराना एलबम
पढ़ने की कोशिश से ऊबा पलटता हूं
बहुत-सी तस्‍वीरें हैं जिनमें लोग कुछ, चार छह जाने-अजाने
जिनसे गुजरता ठिठकता हूं और वहां है एक अचीन्‍हा फोटोग्राफ
रंगों को छोड़ रहा एक श्‍वेत-श्‍याम बचा मौजूद बस
अमूमन संग्रहालयों में दिखाई पड़ जाते हैं जैसा एक
खींचता अपनी तरफ या पुकारता

बिनचाहते उतर पड़ता हूं उस रास्‍ते जो कि उसमें है
सुनाई पड़ती है मद्धिम लौ सी लरजती आवाज
जो देती है पहचान भरी होने का भ्रम
परिंदों का अदृश्‍य फड़फड़ाहट भरा शोर है रास्‍ते भर
मानो मेरे आने की धमक से पैदा हुआ

मैं चलता हूं जैसे नींद में चलने की आदत का नया अनुभव
पत्‍तों-डगालों पर करवटें बदलता मेरा बेदखल समय
कुछ निढाल से अस्‍पष्‍ट पांव चट्टानों के बीच गुजरते गुम होते
कुछ पीठ काली धुस्‍स एक पल के चमकने-होने के अहसास में
मुट्ठी भर आधे-दूधे पेड़ हैं ऊंघते-हिलते
हवा अपने होने में इतनी हलाकान भरी कि
मेरा डर हुआ दूभर पसीने में सांस खींचने को

बकरी के जिबह होने से पहले की करूण चीख सा मैं
टकराता किसी शीशे की गोलाकार वस्‍तु से
लुढ़कती-चीखती है पत्‍थरों से टकराती और एक अनाहत चुप
पलटकर देखता हूं इस कर्कश चीख के अंतिम पड़ाव पर तो दीखती है पेप्‍सी
पड़ोस में जिसके एक खुला-सा पैकिट चमकता मुंहफाड़े अंकल चिप्‍स का
कुछ रंगीन कागज कीमती किसी मैगजीन के सरसराते
कोई छाया लगती डोलती पेड़ के अंतिम ठिकानों पर
अजाने डर में आकंठ डूबा या कि डर से मिलने के दुस्‍साहस से भरा
जोहता हूं बाट तिस पर कि तस्‍वीर में छूट गया मुर्गा बांग दे

पहुंच से दूर हुआ घर कि पकड़ से बाहर सब
भाषा में कहीं संकेतों में पुकारते हैं लोग कि पुकारना मुश्किल
कहीं निकले सब लौट आते हैं एक दिन
इस विश्‍वास में चढ़ा आया हूं कुंडी भीतर से कि मावठा बरस रहा था

जगहें सब कुछ बदलकर रख देती हैं एक रोज
हम निकलते हैं एक जगह को और कहीं चले जाते हैं दूसरी सिम्‍त
विस्‍थापन की प्रक्रिया में बचा रहता है फिर भी बहुत कुछ
भले ही पुराने दिनों का फोटोग्राफ एक अदद
यह और बात है कि लौटने का रास्‍ता बंद करता जाता है कोई

अचीन्‍हें दृश्‍य के इस अबूझ संसार में अलग-थलग
चाहता हूं खोजना कि इस जगह से बाहर मेरा घर
मैं यहां हूं और भूला नहीं कुछ
लौटने का समय होता है तो वह होगा देर-सबेर
जैसे यह मेरे बच्‍चों के लौटने का समय
जैसे लौटने का या घर में जगह घेरने का मावठे का समय
मैं जिसे छोड़ आया था अपनी तंगसुस्‍ती में

अब इस अंधेरी सुरंग में हूं अंधकार बूझता
एक तीव्र इच्‍छा है जीवित चीजों में लौटने को विकल
कुंडी खोलने की इच्‍छा
बच्‍चों के लिए रसोई में पहुंचने की इच्‍छा
मावठे को गरमागरम एक कप चाय पिलाने की इच्‍छा
इच्‍छाएं अपनी जगह खोजती रहती हैं.