भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिला था कल जो हमें बह्रे - बेकराँ की तरह / तलअत इरफ़ानी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:46, 12 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तलअत इरफ़ानी }} {{KKCatGhazal}} <poem> मिला था कल जो हमें बह्रे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मिला था कल जो हमें बह्रे - बेकराँ की तरह
भटक रहा है वो अब दश्त में फ़ुगाँ की तरह

हमारे बाद ज़माने में जुस्तजू वालो,
करोगे याद हमें सई ये रायगाँ की तरह

हम उसकी आँख में ज़र्रे से भी हकीर सही,
हम उसके दिल में खटकते हैं आस्माँ की तरह

तो कैसे- कैसे गुलामी के दौर याद आए,
मिला जो हमसे कोई शख्स हुक्मराँ की तरह

उसी के नाम की तख़्ती थी सब किवाड़ों पर,
जो उठ चुका था किराये पे ख़ुद मकाँ की तरह

अब एक बर्फ का सहरा है और हम तलअत,
सुलग रहे हैं समन्दर की दास्ताँ की तरह