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सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
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सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है
बदलना वो अपना बयाँ जानता है
है ग़र्ज़ अपनी-अपनी ही पहचान सबकी
कि कोई किसी को कहाँ जानता है
हैं अंगार लब और लफ़्ज़ उसके शोले
महब्बत की जो दास्ताँ जानता है
दिलों की है बस्ती फ़क़त अपनी मस्ती
जहाँ के ठिकाने जहाँ जानता है
चलो हम ज़मीं के करें ख़्वाब पूरे
हक़ीक़त तो बस आसमाँ जानता है