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खिलतीं मधु की नव कलियाँ / सुमित्रानंदन पंत

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खिलतीं मधु की नव कलियाँ
खिल रे, खिल रे मेरे मन!
नव सुखमा की पंखड़ियाँ
फैला, फैला परिमल-घन!
नव छवि, नव रंग, नव मधु से
मुकुलित, पुलकित हो जीवन!
सालस सुख की सौरभ से
साँसों का मलय-समीरण।
रे गूँज उठा मधुवन में
नव गुंजन, अभिनव गुंजन,
जीवन के मधु-संचय को
उठता प्राणों में स्पन्दन!
खुल खुल नव-नव इच्छाएँ
फैलातीं जीवन के दल,
गा-गा प्राणों का मधुकर
पीता मधुरस परिपूरण!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२