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बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी / तलअत इरफ़ानी
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बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी
शाखों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी
सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी
कुछ लोग रस्सियों के सहारे खडे रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी
कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी
तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी