ताज़ा प्रेम / प्रदीप जिलवाने

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ताज़े पानी की बात ही कुछ और है
पिघले मोती-सी लगती है हर बूँद
चेहरा देखना कभी ताज़े पानी में
उम्र से भी कम नज़र आओगे।
लगेगा जैसे
कोई दूसरा ही आर्द्र चेहरा
झाँक रहा है शीशे से पानी में।

जाने कहाँ-कहाँ के
किस्सों से भरी होती है ताज़ी हवा
कभी चिड़िया-कभी धूप
कभी बादल, कभी खेत, कभी ईश्वर
और कभी ख़ामोशी की बातें करती है
लगभग तर्कहीन-असंगत-असम्बद्ध।

ताज़ी ख़बर का अपना ही मज़ा है
ताज़ी-ताज़ी रोटियाँ
कुछ ज़्यादा ही खा जाते हैं हम
किसे नहीं भाती
ताज़े फूलों की महक
और ताज़ी धूप का गुनगुना स्पर्श।

सच ही तो है,
ताज़े पानी
ताज़ी हवा
ताज़ी ख़बर
ताज़े फूल
ताज़ी धूप
और ताज़ी रोटियों-सा ही तो स्वाद देता है
ताज़ा प्रेम भी।

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