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तुम्हें जब कभी / निज़ार क़ब्बानी

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जब भी कभी
तुम्हें मिल जाय वह पुरुष
जो परिवर्तित कर दे
तुम्हारे अंग- प्रत्यंग को कविता में।
वह जो कविता में गूँथ दे
तुम्हारी केशराशि का एक-एक केश।

जब तुम पा जाओ कोई ऐसा
ऐसा प्रवीण कोई ऐसा निपुण
जैसे कि इस क्षण मैं
कर रहा हूँ कविता के जल से तुम्हें स्नात
और कविता के आभूषणों से ही से कर रहा हूँ तुम्हारा शृंगार।

अगर ऐसा हो कभी
तो मान लेना मेरी बात
अगर सचमुच ऐसा हो कभी
मान रखना मेरे अनुनय का
तुम चल देना उसी के साथ बेझिझक निस्संकोच।

महत्वपूर्ण यह नहीं है
कि तुम मेरी हो सकीं अथवा नहीं
महत्वपूर्ण यह है
कि तुम्हें होना है कविता का पर्याय।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह