भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहता है बाजुओं का ज़ोर / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:25, 25 मई 2010 का अवतरण
कहता है बाजुओं का ज़ोर, सारे जहाँ को तोलकर
मालिके-दो जहाँ! इधर देख के मेरा मोल कर!
आज भी हैं वो मनचले, आज भी हैं वो सिरफिरे
तीरो-सनाँ की बाढ़ पर, चलते थे सीना खोलकर!
इसमें तो आग है बहुत, इसका तो ख़ून गर्म है--
बोले वो रख के दिल पे हाथ, और जिगर टटोलकर।
बातों में अपने रंग ला, लहज़े को शोख़तर बना
शर्तों को लोचदार रख, वादों को गोलमोल कर !!
तर्ज़े-अदा इशारा हो, अब ये नहीं तरीके-फ़न
राज़ की बात भी कहो, 'शम्स', तो साफ़ खोलकर!