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कवि शमशेर के अवसान पर-1 / लीलाधर मंडलोई

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दिन कई दिनों से बेहूदगी में बीते
भोपाल कमबख्त बारिश के उदास गीलेपन में
धुँधला स्ट्रीट लैम्प सा रहा

एक अधमरी चेतना की अजब सुस्ती कि कई प्याले गुटकने का सिलसिला जारी
बारिश इतनी अल्हड़ कि कभी झटकझूम
कभी चुप इतनी कि हवा चिकोटी काटती चली

चूल्हा पिछवाड़े बमुश्किल किस अजब नींद से जागा
बच्चे रंज में मनहूस बुद्धू बक्से पर खीझे
हवा इतनी मैली कि सड़क पर अटाला धूल-धक्कड़ का

लोग बुनियादी सोच से बाहर रजाइयों में दुबके
राहत जो थोड़ी बहोत नसीब तो धरती की कोख से अँखुआती गंध में
खोलतीं पंख मानो अनगिनत मुर्गियाँ
अधखिले अंडों से झाँकते चूजों को चूमतीं किस हौले

किस कदर खोया रहा मैं कि देखा बोगनबिलिया
बरसों-बरस बाद
एक पूरा दरख्त फूलों से हँसता रहा ऐन चैखट और मैं बेवकूफ-बेपरवाह
फूल ऐसे कि दूध में गिरे सिंदूर के रंग से खिले
गिरती उन पर छुपा-छुपी में धूप खिलंदड़ी

टहोका मारती जब बोगनबिलिया में अलसाती चिड़ियाँ चहक उठतीं
मस्त हो डोल उठता झपताल में बोगनबिलिया
धी-ना-धी-धी-ना-ती-ना-धी-धी-ना

जाने कब निकले उदासी को चीरते हुए शमशेर बाहर
जाने कब दाखिल हुआ चुपके से बोगनबिलिया मन भीतर
घर इस तरह घर हुआ बोगनबिलिया को पहचानता