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दर्शन / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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वह चंद्रहीन थी एक रात,

जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ

उजले-उजले तारक झलमल,

प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,


धारा बह जाती बिंब अटल,

खुलता था धीरे पवन-पटल

चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत

सुनती जैसे कुछ निजी बात।


धूमिल छायायें रहीं घूम,

लहरी पैरों को रही चूम,

"माँ तू चल आयी दूर इधर,

सन्ध्या कब की चल गयी उधर,


इस निर्जन में अब कया सुंदर-

तू देख रही, माँ बस चल घर

उसमें से उठता गंध-धूम"

श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।


"माँ क्यों तू है इतनी उदास,

क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,

तू कई दिनों से यों चुप रह,

क्या सोच रही? कुछ तो कह,


यह कैसा तेरा दुख-दुसह,

जो बाहर-भीतर देता दह,

लेती ढीली सी भरी साँस,

जैसी होती जाती हताश।"


वह बोली "नील गगन अपार,

जिसमें अवनत घन सजल भार,

आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल

शिशु सा आता कर खेल अनिल,


फिर झलमल सुंदर तारक दल,

नभ रजनी के जुगुनू अविरल,

यह विश्व अरे कितना उदार,

मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।


यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,

संसृति के कल्पित हर्ष शोक,

भावादधि से किरनों के मग,

स्वाती कन से बन भरते जग,


उत्थान-पतनमय सतत सजग,

झरने झरते आलिगित नग,

उलझन मीठी रोक टोक,

यह सब उसकी है नोंक झोंक।






'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''