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बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो / सुमित्रानंदन पंत

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बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो
करता सतत रुदन कातर,
हँस हँस कर नित कहता सागर
मैं ही हूँ तेरे भीतर!
निखिल सृष्टि में व्याप्त एक ही
सत्य, न कुछ उसके बाहर,
फिर अखंड बन जाएगा तू
अगर पी सके मदिराधर!