भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो / सुमित्रानंदन पंत

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:44, 31 मई 2010 का अवतरण ("बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो
करता सतत रुदन कातर,
हँस हँस कर नित कहता सागर
मैं ही हूँ तेरे भीतर!
निखिल सृष्टि में व्याप्त एक ही
सत्य, न कुछ उसके बाहर,
फिर अखंड बन जाएगा तू
अगर पी सके मदिराधर!