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तुम्हारा ख़त / प्रज्ञा पाण्डेय
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फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त
याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छिपा छूत के डर से !
याद आई बाबा की
पीली जनेऊ
खींचती रेखा कलेजे में !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे घर से !
याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !
याद
आया हमारा
भरा खेत खलिहान !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की
और
याद आई
गाँव की बहती नदी
जिसमें डुबाये बैठते
हम
अपने अपने पाँव !
और बहता
एक रंग पानी का!
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए!