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मेघदूत के यक्ष से / गुलाब खंडेलवाल

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जिनकी बूंदों की अजस्र लड़ियों-से तेरे अश्रु गिरे
नील शिला पर, सुनकर तेरा विरह-व्यथा-पूरित सन्देश
मौन रामगिरि आश्रम से जो चले गए थे, कभी फिरे
वे अषाढ़ के प्रथम मेघ फिर, जा तेरी कांता के देश ?
 
एक कल्प-से एक वर्ष की अवधि बिताकर भुला सका
अश्रु सजल पत्नी के भुजपाशों में तू वियोग का ताप
या उससे पहले ही सब दुःख शोक भुलाकर जीवन का
स्वर्ग सिधार गया निज प्रिया-विरह में करता हुआ विलाप.
 
या जड़ मेघ पवन-प्रेरित वे तुझसे दर्शित मार्ग धरे
पहुँच सके न कभी अलकापुर में तेरी कांता के पास
पतिव्रता जो अवधि-अंत तक रह न सकी निज प्राण धरे
पावस ऋतू में भी प्रिय का सन्देश न पा कोई हत-आश
 
यह न हुआ तो तेरे स्वर क्यों अब भी व्यथा न खोते हैं?
उन संदेशों से विगलित ये मेघ आजतक रोते हैं.

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