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मुठ्ठी भर रेत / विजय कुमार पंत
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समर्पण ओढ़े
किनारे पर
मैं
करती रही
इंतजार!
तुम भी आते रहे
जब जी किया,
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह, बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
सुखाता रहा
मेरा ही दर्प,
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो !
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर
मेरा कण कण
रेत बनकर...