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चौथी भूख / सुमित्रानंदन पंत

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भूखे भजन न होई गुपाला,
यह कबीर के पद की टेक,

देह की है भूख एक!—

कामिनी की चाह, मन्मथ दाह,
तन को हैं तपाते
औ’ लुभाते विषय भोग अनेक
चाहते ऐश्वर्य सुख जन
चाहते स्त्री पुत्र औ’ धन,
चाहते चिर प्रणय का अभिषेक!
देह की है भूख एक!

दूसरी रे भूख मन की!

चाहता मन आत्म गौरव
चाहता मन कीर्ति सौरभ
ज्ञान मंथन नीति दर्शन,
मान पद अधिकार पूजन!
मन कला विज्ञान द्वारा
खोलता नित ग्रंथियाँ जीवन मरण की!
दूसरी यह भूख मन की!

तीसरी रे भूख आत्मा की गहन!

इंद्रियों की देह से ज्यों है परे मन
मनो जग से परे त्यों आत्मा चिरंतन
जहाँ मुक्ति विराजती
औ’ डूब जाता हृदय क्रंदन!

वहाँ सत् का वास रहता,
चहाँ चित का लास रहता,
वहाँ चिर उल्लास रहता
यह बताता योग दर्शन!

किंतु ऊपर हो कि भीतर
मनो गोचर या अगोचर
क्या नहीं कोई कहीं ऐसा अमृत धन
जो धरा पर बरस भरदे भव्य जीवन?
जाति वर्गों से निखर जन
अमर प्रीति प्रतीति में बँध
पुण्य जीवन करें यापन,
औ’ धरा हो ज्योति पावन!