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आह्वान / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
बरसो हे घन!
निष्फल है यह नीरव गर्जन,
चंचल विद्युत् प्रतिभा के क्षण
बरसो उर्वर जीवन के कण
हास अश्रु की झड़ से धो दो
मेरा मनो विषाद गगन!
बरसो हे घन!
हँसू कि रोऊँ नहीं जानता,
मन कुछ माने नहीं मानता,
मैं जीवन हठ नहीं ठानता,
होती जो श्रद्धा न गहन,
बरसो हे घन!
शशि मुख प्राणित नील गगन था
भीतर से आलोकित मन था
उर का प्रति स्पंदन चेतन था,
तुम थे, यदि था विरह मिलन
बरसो हे घन!
अब भीतर संशय का तम है
बाहर मृग तृष्णा का भ्रम है
क्या यह नव जीवन उपक्रम है
होगी पुनः शिला चेतन?
बरसो हे घन!
आशा का प्लावन बन बरसो
नव सौन्दर्य रंग बन बरसो
प्राणों में प्रतीति बन हरसो
अमर चेतना बन नूतन
बरसो हे घन!