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चाह / मुकेश मानस
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चाह
भाग जाऊं
भागकर कहां जाऊं
लौटकर आना है
यहीं इसी नरक में
जीवन बिताना है
यहीं इसी नरक में
बार-बार होती है चाह
क्या यहां से निकलने की
नहीं है कोई राह
1986