उर के आवेगों से विह्वल कच ने देखी वह छवि अजान (प्रथम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल
उर के आवेगों से विह्वल कच ने देखी वह छवि अजान
थी खड़ी देवयानी जैसे नववधू, विनत मुख, सजल प्राण
लतिकांचल में युग जुगनू ज्यों चंचल स्मिति का उजियाला ले
थे झुके स्नेह से भरे नयन सतरंगी लौ की माला ले
अलकें उड़ पलकों पर आतीं ज्यों हास न वह निर्धूम रहा
कंचन की धरती पर मानों नीलम का पौधा झूम रहा
कंपित सपनों की तूली से अंकित जिसकी स्वर-धारा हो
आशा ने लज्जित यौवन का सूने में चित्र उतारा हो
उन्माद, रूप की पीड़ा का, भरता प्राणों में दृढ़ता हो
ऊषा के अरुण कपोलों पर पाटल का पानी चढ़ता हो
'इतनी पुलकन, उच्छ्वास! रुको, मैं चित्र अभी पूरा कर लूँ
तट की दो पतली बाँहों में मैं कैसे भर पावस निर्झर लूँ
यह गंध नहीं बन हँसी उड़े पगली कोकिल चुप ही रहना
मैं फूल रही माधवी-लता, मलयानिल धीरे-से बहना
क्या हानि, तृषित चातकी! तुझे सुख-स्वाति निमिष भर बाद मिले
प्रिय घन को विकल प्रतीक्षा की तड़पन का कुछ तो स्वाद मिले
चंचले, देख नभ हँसता है तेरे इस सुख की सीमा पर
गौरवमय नीरवता पढ़ ले सरिते! कातर स्वर धीमा कर
नारीत्व कहीं न सरल समझे मेरे मन, कुछ तो मान सीख
तू स्वयं भिखारी-सा क्यों है जग जिससे पाता प्रणय भीख
लय हो जाती संध्या-सी ज्यों गायिका श्याम-स्वर-लहरी में
तितली के पर की हिम-कणिका जैसे उज्जवल दोपहरी में
स्वप्निल स्मिति-सी जब चुंबन से चेतना अधर की जाग गयी
दिनकर को आते देख वधू ऊषा ज्यों सकुचा भाग गयी
छाया-सी छिपी क्षितिज-पट में विधु के पीछे-पीछे हट कर
जल भरती विद्युत्-बाला-सी नीली नभ-सरिता के तट पर
कच ने देखे दो नयन दूर तारों-से नभ में डूब चले
पूर्णेंदु बिखर कर पारे-सा चमका चरणों की दूब तले
ऊषा उदयाचल-शिखरों पर करती कंचन की झड़ी रही
अस्पष्ट मधुर अनुभूति विकल मन में काँटे-सी गड़ी रही
संज्ञा-पट पर चलचित्र चकित नत-नयन निरखता अपने में
कच खोया-सा चुपचाप चला जगकर कोई ज्यों सपने में