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भय / मदन कश्यप
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न उसके आने की कोई दिशा है
ना ही जाने का कोई निशान
कभी-कभी तो वह
मेरे तकिये में जा छिपता है
और कुछ देर बाद
छत से लटके पंखे से वापस निकल जाता है।
वह कभी भी दबा देता है मेरी गर्दन
तेज चाकू से खरोंच डालता है मेरा बदन
कहीं भी छुप जाऊँ
उससे छुपकर कहीं नहीं जा सकता
छाया तो कभी-कभी पीछा छोड़ भी देती है
शायद इसके रहने के लिए सबसे महफूज जगह है
मेरा विचारहीन और आस्थाहीन दिमाग!