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ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आस्माँ पहाड़ / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आस्माँ पहाड़

लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़


हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़

पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़


थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद

अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़


सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ

ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़


पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम

मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़


नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद

देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़


वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम

बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़


सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं

वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़


कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले

सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़