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मधुप तुम भूले प्रीति पुरातन / गुलाब खंडेलवाल
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उर्वशी --
मधुप तुम भूले प्रीति पुरातन
सूख रहा नयनों के सम्मुख प्यारा नंदन कानन
छुटती नहीं हास-फुलझड़ियाँ,चलते हैं दृग-बाण न
आठ पहर रोटी वन्रानी नीचा करके आनन्
लता-विटप उलझे, झुलसे तृण, फिरते मृग-पंचानन
बिना तुम्हारे उजड़ गयी वह सुषमा आनन-फानन