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सीपियाँ / मदन कश्यप
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किसी सूर्यपूत्र की तरह
कवच के साथ ही जन्म नहीं लेती हैं
सीपियाँ
धरती की यह सबसे मसृण-मृदुल जीव
खुद ही गढ़ती हैं अपने रंगबिरंगे सीप
और उसके कठोर होने से पहले ही
जलचरों से सटकर
शुरू कर देती हैं अनंत यात्रा
अथाह जल के अछोर विस्तार में
जीने की अकूल लालसा के साथ
लगातार यात्रारत रहती हैं
सीपियाँ
बस कभी-कभी ही
उनकी नन्हीं-सी जीवनयात्रा में
पैदा होता है कोई व्यतिक्रम
जब आँखों-सी कोमल उनकी देह में
घुस आते हैं ठोस कण
तब सागर से भी गहरी पीड़ा
नदी की अजस्त्र धारा-सी
निरंतर वेदना झेलती हुई
अपने जीवन रस से उन्हें पालती हैं
सीपियाँ
और धीरे-धीरे
ठोस सफेद मोती में ढल जाती हैं
डनकी घनीभूत व्यथाएँ
जितना अधिक सहती हैं सीपियाँ
उतने सुंदर बनते हैं मोती!