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बस्ती के लोग / मुकेश मानस
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ये बस्ती है या मौत का घर
चाहे कोई हो पहर
यहां बहुत मरते हैं लोग
उनके रिश्तेदार
ठीक से मना भी नहीं पाते सोग
जो हंसते-खिलखिलाते हैं
बात-बात में
बीबी बच्चों पर हाथ उठाते हैं
मंदिरों में सिर झुकाकर
घंटियां बजाते हैं
जो रात में खूब पीकर
गली में शोर मचाते हैं
वो किसी भी दिन
चुपचाप मर जाते हैं
समझदार कहते हैं
मरकर तर जाते हैं
मैं सोचता हूं
इस बस्ती के यह लोग
मरकर तरते भी होंगे
तो तरकर कहां जाते होंगे
रचनाकाल:1998