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हिमालय नहीं है वितोशा (कविता) / कर्णसिंह चौहान

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हिमालय नहीं है वितोशा
कि देश का मुकुट बने
बस
सोफिया का सिरहाना है
नगर के आराम के लिए ।

भोर में
सबसे पहले जगता
दिन भर
शहर को झलता है पंखा
करता झाडू-बुहार
जलाता रसोई
सड़कों पर देता है पहरा
सप्ताह भर
लोग भूले रहते
कनखियों से निहारते
कभी-कभार ।

फिर अचानक
दौड़ते हैं मिलने
हवा खाने सेहत बनाने
तपस्थली नहीं है वितोशा
कि चिंतन का वाहक बने
बस
सोफ़िया की सैरग़ाह है
नगर के उपभोग के लिए ।

रखता है जेब में
छोटी सी डायरी
लखता है प्रदूषण के आंकड़े
दिलाता है प्रकृति की याद
बच्चों को गोद में खिलाता है
लोगों को लोगों से मिलाता है
चिमनियों से धुंधुआता नगर
अफ़सोस में भर
करता याद
कभी कभार ।

मौसम की पहली बर्फ़ देखने
नंगे पाँव
दौड़ते हैं लोग
आत्मा गरमाने
आल्प्स नहीं है वितोशा
कि सौन्दर्य का प्रतिमान बने
बस
सोफ़िया की क़ब्रगाह है
पाप दफ़नाने के लिए ।

हिमालय नहीं है वितोशा ।