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गरीबी की सीमारेखा के पार / कर्णसिंह चौहान

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कितना ख़ूबसूरत है
ग़रीबी की सीमारेखा के पार
यह संसार ।

पेट की ज्वाला
नहीं भगा रही इन पैरों को
यह तो सड़कों की किस्मत है
स्वागत में बिछी हुई
सूरज की किरणों में
लाल रेखा-सी खिंची हुई,
पदाघात में खिलती आम्रमंजरी
स्वर और ताल की झंकार
यह संसार ।

कहीं ललक नहीं
इन विस्फारित आँखों में
न आतुरता
बस
एक मनमोहक चुनाव की
चुहुल है
धन्य हो रहीं
नवमल्लिका की छुवन में
वस्तुएँ
समर्पण ही जिनका सार
यह संसार ।

किसी दैवी-प्रकोप के शाप से
नहीं उधड़ा है यह तन
यह तो बेल की शाखा है
पत्तों के बाहर
फूल बन खिली हुई ।
किसी शिकार की तलाश में
नहीं लपकी
हिंस्र पशु की नज़र
एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल को
सराहने
उठा है हाथ
निष्कंप, निर्विकार
यह संसार ।

बहुत रोज़ देखा
सोने की चिड़िया में
दलिद्दर बीच
वैभव अपार
घिनौनी अश्लीलता
लाशों पर गिद्धों के
जश्न के दृश्य
पहली बार दिखी
सब ओर छिटकी
बर्फ़ की यह पावनता
गदराये बगीचे में
सौन्दर्य खिलाते
ये झरने
पेड़, फूल, पहाड़ और घास
जीवन
मोतियों से भरा पारावार
यह संसार ।