भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चासेस्कू के कत्ल की रात / कर्णसिंह चौहान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:14, 8 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कर्णसिंह चौहान |संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती के इस उजले हिस्से में
नए साल की पूर्व संध्याएँ
मनुष्य के हित-साधन
सलीब ढोते ईसा के
सूली पर चढ़ने का उत्सव है ।

गिरजे की मधुर घंटियों के बावजूद
बहुत भयानक यह कांड
दहशत भरा दृश्य
कील छिदी हथेलियों और पंजों से
टपकते ख़ून की धार
बारिश के पनालों में वह निकली है
लोग देखते
खामोश, निर्निमेष
यह दुख की नहीं
बर्फ़ के सुकून में रंगा
ख़ुशी का उत्सव है ।
 

लाल मदिरा के खनकते ग्लासों में
संजय द्ष्टि से
दिखा रहा लगातार दूरदर्शन
बख़ारेस्त के पुराने भवन का दृश्य
अस्थाई अदालत
सात कुर्सियों पर सात लोग
सामने पुरानी बैंच पर
उकडू बैठे चासेस्कू दंपति
ईसा की बलि में
देख रहा यूरोप
यह शोक का नहीं
आनंद का उत्सव है ।

बाहर पटाखों में मगन बच्चे
अंधेरे आसमान में आतिशवाजी की छटा
खंडहरनुमा कमरे में
येरुशलम का नज़्ज़ारा
अभी कुछ दशक पहले
बड़े भाई से रुठा था चासेस्कू
मचल कर बनाया
न्यारा घरोंदा

अभी कुछ बरस पहले
पूँजी की आवत से
जूझा था चासेस्कू
झोंक में दिलाई कसम
कम खाने, ग़म खाने की

अभी कुछ दिन पहले
विशाल भब्य सभागार की
सभा में
गरजा था चासेस्कु
दि ललकार
प्रेस्त्रोइका के भूत को भगाने की

खेमों की तरह लड़ा था चासेस्कु
अपने-परायों की सेना में घिरा था चासेस्कु
तफ़ानी हवाओं के सामने अड़ा था चासेस्कु
और आज इस अदालत में खड़ा था चासेस्कु

हो रही थी प्रश्नों की बौछार
बछीं और तीरों की मार
व्यंग्य, विद्रूप, हुंकार
अपने दर्प में सबसे बड़ा था चासेस्कु ।

जब उसे पकड़ा
रहा बिल्कुल अकेला
निहत्था
लोग ही लोग थे चारों और
पहचाने, अनजाने
जड़ प्रतिमाओं की अभेद्य दीवार
तमाम झंड़े शोक में झुके थे
सैनिकों के चेहरों पर बेरहम सख्ती
समझ गया चासेस्कु
यह कत्ल की रात है ।

सैनिक पोशाक पहन
बेगम को जगाया
चुपचाप तोपबग्घी में आ बैठा
यह भी तो होना है
सबको एक दिन सलीब ढोना है ।

रात भर जगती रही अदालत
पढ़े जाते रहे आरोप
मौन में तना चासेस्कु
करता रहा बार-बार वार ।

ख़त्म हुआ तमाशा
चमड़ी गंडासों की धार
घना हो आया सन्नाटा
बाहर बर्फ की सफ़ेदी पर
फैल गई गर्म ख़ून की धार
खिल उठे हज़ारों गुलाब

लौट आए घरों को
भारी पग लोग
ईसा के उत्सव में चुपचाप सो जाओ
यह चासेस्कु के कत्ल की रात है।