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मोटरसाईकिल के पीछे बैठी वह / विष्णु नागर

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मोटरसाईकिल के पीछे बैठी वह
कभी अपने प्रेमी के कंधे को
दोनों बांहों से जकड़ती है
कभी उसकी पीठ पर अपना पूरा बोझ डालकर
आंखें मूंदने का सुख लेती है
कभी उसके कानों में कुद कहती है
कभी उसकी पीठ को अपनी दोनों बाहों में समेट लेती है
कभी उसकी जांघों पर रख देती है अपनी हथेलियां
कभी हवा में लहराते अपने बालों को पीछे करती है अदा से
देखना चाहे तो कोई देख ले उसे इस तरह
चाहे तो जले, मरे, आहें भरे

कभी वह क्‍या सोचती है, कभी क्‍या
कभी लालबत्‍ती पर पास खड़े दूसरे जोड़े को देखती है
उसके प्रेमी को ढूंढती है अपना प्रेमी
कभी उसकी प्रेमिका को ज्‍यादा सुंदर पाकर
अपने प्रेमी के कान को होंठों से काटने का अभिनय करती है

उसे क्‍या पता कि मैं उसकी ये हरकतें देख रहा हूं
और पता हो तो भी क्‍या
वह जानती है इन बूढ़ों को ईर्ष्‍या होती है यह देखकर
इन्‍हें कहां मिला ये सुख जिंदगी में कभी
इसलिए अंकलजी लोग ऐसे ही घूरते हैं
अतृप्‍त, हिंसक तरीके से
इनकी क्‍या परवाह करना
ये तो हैं
सड़े आलू से भी ज्‍यादा बदबूदार
मरने दो इन्‍हें

ले मेरी मोटरसाइकिल तो चली, ये चली, ये चली
उड़ गई, मैं उड़ गई
ये गई, वो गई, चली गई, ए देख, हवा हो गई.