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सार्थकता / सुमित्रानंदन पंत

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वसुधा के सागर से
उठता जो वाष्प भार
बरसता न वसुधा पर
बन उर्वर वृष्टि धार,
सार्थक होता?

तूने जो दिया मुझे
अमर चेतना का दान
तेरी ओर मेरा प्यार
होता न धावमान,
सार्थक होता?

घुमड़ता छायाकाश
गरजता अंधकार
मृत्यु बाहुओं में बँधी
चेतना करती पुकार,
सार्थक होता?

मर्त्य रहे स्वर्ग रहे
सृष्टि का आवागमन
प्राणों में बना रहे
तेरा चिर रहस मिलन
जीवन सार्थक होगा!