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कमबख्त हिन्दुस्तानी / मनोज श्रीवास्तव
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आगे
थोड़ा और आगे
और, और आगे
उफ़्फ़! और आगे क्यों नहीं
अरे-रे-रे, रुक क्यों गए
ज़मीन पर आँखें गडाए क्यों खडे हो
हाँ, हाँ, कोशिश करो
सिर उठाकर सामने देखो
शाबाश! देखो ही नहीं
क़दम भी आगे बढाओ
ओह्! सिर दाएँ-बाएँ क्यों करने लगे
सामने तो खुला रास्ता है
क्यों खुले रास्ते से डर लगता है
देखो! ऐसे करोगे तो...
शाम हो ही चुकी है
अब रात का घुप्प अन्धेरा भी पसरने लगेगा
फिर, कैसे आगे जा सकोगे
आह! फिर, वैसा ही करने लगे
खडे ही रहोगे
अरे बैठ भी गये
लेकिन, लेटना मत!
च्च, च्च, च्च, लेट गये
पर, सोना मत
हाय! आँखें क्यों बंद कर ली
धत्त! खर्राटे भी भरने लगे
काहिल कहीं के!
अजगर ही बने रहोगे
कमबख़्त हिन्दुस्तानी!
रचनाकाल : 08 अगस्त 2009