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लाई हूँ फूलों का हास / सुमित्रानंदन पंत

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लाई हूँ फूलों का हास,
लोगी मोल, लोगी मोल?
तरल तुहिन-बन का उल्लास
लोगी मोल, लोगी मोल?
 
फैल गई मधु-ऋतु की ज्वाल,
जल-जल उठतीं बन की डाल;
कोकिल के कुछ कोमल बोल
लोगी मोल, लोगी मोल?

उमड़ पड़ा पावस परिप्रोत,
फूट रहे नव-नव जल-स्रोत;
जीवन की ये लहरें लोल,
लोगी मोल, लोगी मोल?

विरल जलद-पट खोल अजान
छाई शरद-रजत-मुस्कान;
यह छवि की ज्योत्स्ना अनमोल
लोगी मोल, लोगी मोल?

अधिक अरुण है आज सकाल --
चहक रहे जग-जग खग-बाल;
चाहो तो सुन लो जी खोल
कुछ भी आज न लूँगी मोल!

रचनाकाल: एप्रिल’ १९२७